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सांस्कृतिक पर्व: हमारा देश त्योहारों और सांस्कृतिक कार्यों में काफी विश्वास रखने वाला देश है। हमारे देश में हर सांस्कृतिक कार्य को धूमधाम से मनाया जाता है। आज हम एक ऐसे पर्व के बारे में जानेंगे जो अत्याधिक विशेष है पर उसकी जानकारी का काफी अभाव भी है। जैसा की हम सब जानते है कि हर महीने में दो एकादशी आती है जो की हम सब भगवान विष्णु की आराधना एवं पूजापाठ में अर्पित करते है। एकादशी मुख्य तौर पर सिर्फ भगवान विष्णु के अलग - अलग अवतारों को समर्पित है। आज हम इनमें से एक ऐसी एकादशी के बारे में ही जानेंगे जो आपकी किस्मत तक बदल सकता है।
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वरुथिनी एकादशी
वह एकादशी है वरुथिनी एकादशी। इसे बरूथनी एकादशी भी कहते है । यह एकादशी भी भगवान विष्णु के एक प्रिय अवतार को समर्पित है। इस दिन भगवान विष्णु के पांचवे अवतार को पूजा जाता है जिनका नाम है वामन। जैसा कि आप सब जानते है कि हर एकादशी की अपनी एक कथा होती है वैसे ही इस एकादशी की भी एक रोमांचक कथा है। आइए इस कथा का अध्ययन करते है जिसके बाद हम इसके शुभ प्रभाव एवं पूजा विधि के बारे में भी जानेंगे।
वरुथिनी एकादशी व्रत मुहूर्त और तिथि
हिन्दू पंचांग के अनुसार वरुथिनी एकादशी इस महीने की 16 तारिख यानी 16 अप्रैल को है। यह एक वार्षिक एकादशी है जो कि वर्ष में सिर्फ एक बार आती है ।
वरुथिनी एकादशी तिथि 15 अप्रैल 2023 को रात 08 बजकर 45 मिनट पर शुरू होगी और अगले दिन 16 अप्रैल 2023 को शाम 06 बजकर 14 मिनट पर समाप्त होगी।
उदया तिथि में व्रत करना उचित माना जाता है इस कारण इस दिन श्रीहरि की पूजा का समय सुबह 07 बजकर 32 मिनट से सुबह 10 बजकर 45 मिनट तक शुभ मुहूर्त है।
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वरुथिनी एकादशी कथा
कथा की शुरुआत त्रेतायुग के आरंभ के साथ हुई। त्रेतायुग के प्रारंभ के समय ही भगवान विष्णु ने अपने अवतार को देवी अदिति के गर्भ द्वारा उत्पन्न किया। उनके पिता प्रजापति कश्यप और माता देवी अदिति थी। साथ ही इस अवतार के साथ भगवान विष्णु अपने पहले मानव अवतार रुप में प्रकट हुए। जो कि एक बालक रूपी ब्राह्मण अवतार था। इन्हें अलग - अलग जगह पर अलग - अलग नाम से जाना जाता है। उनमें से कुछ नाम मुुख्य है :- आदित्य, उपेन्द्र, विक्रम, त्रिविक्रम। भागवत कथा के अनुसार इस अवतार का मुख्य उद्देश्य था भगवान इंद्र के देवलोक पर अधिकार का पुनः स्थापित होना। अब कथा को शुरू करते है।
यह कथा शुरू होती है जब भगवान विष्णु के परम भक्त प्रह्लाद के पौत्र (पोता) बलि ने अपनी शक्ति से देवलोक पर अपना अधिकार स्थापित किया। बलि अधिक बलशाली और अपने वचन का पक्का व्यक्ति था। बलि के एक गुरु भी थे जो उसे हर मुसीबत के प्रति सचेत कर देते थे। बलि के गुरु का नाम शुक्राचार्य था। बलि के ऐसे देवलोक पर अधिकार के कारण देवता इंद्र भगवान विष्णु से अपनी समस्या का कोई उपाय मांगने पहुंचे। जिस पर भगवान विष्णु ने उनको आश्वासन देते हुए कहा की उनका पांचवा अवतार ही उनकी पीड़ा से मुक्ति का उपाय है जो की जल्दी ही धरती पर जन्म लेने वाला है।
जन्म के कुछ सालों बाद भगवान वामन ने एक योजना बनाई जिसे वह बलि का अधिकार खत्म कर सके। भगवान वामन ने एक बौने ब्राह्मण का वेष धारण कर लिया और बलि के पास अपने एक अनुरोध को लेकर पहुंचे। उनका अनुरोध था कि उन्हें अपने रहने के लिए तीन पग भूमि चाहिए। बलि महाबलशाली होने के साथ एक दयालु राजा भी था जिसके कारण वह भगवान वामन को मना ना कर सके। इस पर शुक्राचार्य ने विरोध किया पर बलि ने उनकी बात को सुनना जरूरी ना समझा। बलि ने कहा ठीक है मै आपको आपकी पसंद की तीन पग भूमि दूंगा चुन लीजिए जो आपको पसंद आए।
यह सब भगवान विष्णु की ही लीला थी। बलि की बात सुनकर भगवान वामन ने अपना आकार इतना बढ़ा कर लिया की उनके एक पग में भूलोक यानी धरती, दूसरे पग में आकाश यानी देवलोक और इसी के साथ उन्होंने अपना तीसरा पग निकाला जिससे उन्हें त्रिविक्रम कहा जाने लगा। भगवान वामन ने कहा मेरे दो ही पग मै सारा संसार आ गया तो अब मै अपना ये तीसरा पग कहा रखूं। ब्राह्मण का तीसरा पग देखकर बलि समझ गया की ये कोई आम ब्राह्मण नहीं है।
भगवान वामन की बात सुनकर बलि ने सम्मानपूर्ण तरीके से कहा की वह अपना तीसरा पग मेरे सर पर रख ले। भगवान वामन बलि के इस सम्मान से प्रभावित हुए तथा उन्होंने बलि को पाताल लोक देने का निर्णय किया। इसके बाद भगवान वामन ने अपना तीसरा पग बलि पर रख दिया जिससे बलि की मृत्यु हो गई परंतु मृत्यु के बाद वह पाताल लोक पहुंच गया जहां उसने अपना आधिपत्य स्थापित करा। ऐसी मान्यता है कि भगवान वामन से मृत्यु पाकर बलि अमर हो गया और आज भी पाताल लोक मै रहता है। बलि की मृत्यु के बाद असुर मृत्यु के डर से भाग गए। असुर के भगते ही वहां देवता इंद्र और उसके साथी देवता आ गए और उन्होंने भगवान विष्णु के पांचवे अवतार को धन्यवाद किया।
वरुथिनी एकादशी व्रत
➡ सबसे पहले सुबह जल्दी उठे।
➡ फिर नहा कर साफसुथरे कपड़े पहने।
➡ थोड़ी देर एक जगह बैठ कर मन को शांत करें और खुद से प्रण करे की आप ये व्रत को पूर्ण समर्पण के साथ करेंगे।
➡ व्रत आरंभ करने के बाद प्याज , लहसुन , मांस, शराब और तंबाकू का सेवन सख्त वर्जित है।
➡ इस दिन जरूरतमंदो को दान करना बहुत पुण्य का काम होता है।
➡ इस दिन आप भगवान विष्णु का या भगवान वामन के मंत्र का जाप नियमित करे। वह मंत्र है :- ॐ वामनाय नम: तथा ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
वरुथिनी एकादशी अन्य व्रत कथा
युधिष्ठिर बोले, हे प्रभु! मैं आपको नमस्कार करता हूं। वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या नाम है, उसकी कथा क्या है आप विस्तारपूर्वक मुझसे कहिए।
श्रीकृष्ण कहने लगे- हे राजेश्वर! इस एकादशी का नाम वरूथिनी है। यह सौभाग्य देने वाली, सब पापों को नष्ट करने वाली तथा अंत में मोक्ष देने वाली है।
इसकी कथा यह है कि प्राचीन काल में नर्मदा नदी के तट पर मान्धाता नामक राजा राज्य करता था। वह बड़ा दानशील और तपस्वी था। एक दिन जब वह जंगल में तपस्या कर रहा था, तभी न जाने कहां से एक जंगली भालू आया और राजा का पैर चबाने लगा। राजा पूरी तरह अपनी तपस्या में लीन रहा। कुछ देर बाद पैर चबाते-चबाते भालू राजा को घसीटकर पास के जंगल में ले गया।
राजा बहुत घबराया, मगर तापस धर्म के कारण उसने क्रोध और हिंसा न करके भगवान विष्णु से प्रार्थना की, करुण भाव से भगवान विष्णु को पुकारा। उसकी पुकार सुनकर भगवान श्रीहरि विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने अपने चक्र से भालू को मार डाला।
राजा का पैर भालू पहले ही खा चुका था। इससे राजा बहुत ही दुखी हुआ। उसे दुखी देखकर भगवान विष्णु बोले- 'हे वत्स! शोक मत करो। तुम मथुरा जाओ और वरूथिनी एकादशी का व्रत रखकर मेरी वराह अवतार मूर्ति की पूजा करो। उसके प्रभाव से पहले जैसे सुदृढ़ अंगों वाले हो जाओगे। इस भालू ने तुम्हें जो काटा है, यह तुम्हारे पूर्व जन्म का अपराध था ।
भगवान की आज्ञा मानकर राजा मान्धाता ने मथुरा जाकर श्रद्धापूर्वक वरूथिनी एकादशी का व्रत किया। इसके प्रभाव से राजा शीघ्र ही पुन: सुंदर और संपूर्ण अंगों वाला हो गया। इसी एकादशी के प्रभाव से राजा मान्धाता स्वर्ग गया था।
जो भी व्यक्ति भय से पीड़ित है उसे वरूथिनी एकादशी का व्रत रखकर भगवान विष्णु का ध्यान करना चाहिए। इस व्रत को करने से सारे पापों का नाश होकर मोक्ष मिलता है ऐसी मान्यता है।
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